देखें, सरकार कैसे पल्टी मारती है केस-दर-केस : एन के सिंह
- एन के सिंह
कभी मीडिया की सकारात्मक भूमिका भी समझें
हाल हीं में एक टीवी चैनल “यूपीएससी जिहाद” शीर्षक से नौ एपिसोड की सीरियल दिखा रहा था, यह कहते हुए कि कुछ मुस्लिम संस्थाएं अपने लड़कों को प्रशासनिक सेवाओं में भेजने की “साजिश” कर रही हैं (लव-जेहाद की तरह जिसमें कहा जाता है कि मुसलमान लड़के, हिन्दू लड़कियों को फंसा कर शादी करते हैं और धर्म परिवर्तन भी) अपनी बात को इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म का नायब नमूना बता कर चैनल कह रहा था कि पिछले कुछ वर्षों में मुसलमान युवा ज्यादा तादात में आईएएस और आईपीएस बने हैं (हकीकत उलटी है),
दूसरा दावा था कि मुसलमानों के लिए अधिकतम आयु 35 साल कर दी गयी है जबकि कि हिन्दुओं की 32 साल है (एक हाई स्कूल पास व्यक्ति भी जनता है कि घर्म के आधार पर कोई रियायत नहीं मिलती). नितांत गलत आंकड़े और तथ्य जब चार एपिसोड में परोसे गए तो सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर इस सीरियल न्यूज़ के टेलीकास्ट पर रोक लगाने मांग की गयी. तब भारत सरकार के दूसरे सबसे बड़े वकील सोलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट में कहा “खोजी पत्रकारिता पर रोक नहीं लगाई जा सकती, क्योंकि संविधान उन्हें यह अधिकार देता है”. लेकिन दस दिन बाद हीं जाने-माने वकील प्रशांत भूषण द्वारा 2009 में दिए गए एक इंटरव्यू को लेकर इसी कोर्ट की अवमानना की सुनवाई के मामले में भारत सरकार के सबसे बड़े वकील अटॉर्नी जनरल ने कहा “जो मामले अदालतों में सुनवाई के आधीन हैं उन पर रिपोर्टिंग करके मीडिया न्यायपालिका की गरिमा को गिरा रहा है”. महान वकील शायद यह भूल गए कि खोजी पत्रकारिता इस का इन्तजार नहीं करती कि कब मामला कोर्ट में पहुंचा. दुनिया के सभी बड़े घोटाले बाहर तब आये हैं जब उन पर कोर्ट सुनवाई कर रही थी. फिर बड़े सरकारी वकील साहेब की बात मान लें तो सत्ता में बैठा हर भ्रष्टाचारी स्वयं हीं अपने गुर्गे से कोई छोटा-मोटा केस करवा देगा और फिर मीडिया “असहाय ” ताकती रहे, जबकि भ्रष्टाचारी अफसर/नेता मूंछों पर ताव देता प्रमोशन हासिल करेगा या अगला चुनाव जीत कर मंत्री बनेगा क्योंकि वह जानता है कि फैसला तो अगले 10-20 साल नहीं आना है. वैसे आजकल यह प्रक्रिया काफी भ्रष्टाचारी सरकारें और उनके लोग अपनाने भी लगे हैं.
मीडिया ट्रायल का दूसरा पहलू
एक किस्सा हकीकत बताता है. कुछ वर्ष पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक बलात्कार के बाद हत्या का मामला हुआ. मीडिया ने बलात्कारी के खिलाफ तथ्य दिए. निचली अदालत ने उसे सजा दी. मीडिया सत्य साबित हुई और कार्य भी सराहनीय माना गया. लेकिन अपराधी अपील में हाई कोर्ट गया, जिसने उसे बरी कर दिया. जाहिर है वही मीडिया अब गलत ठहराई गयी, याने “मीडिया ट्रायल” का आरोप लगा. लेकिन राज्य फिर हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चला गया. देश की सबसे बड़ी अदालत ने न केवल निचली अदालत में दी गयी सजा को सही ठहराया, बल्कि हाई कोर्ट की समझ पर भी नकारात्मक टिप्पणी की. याने मीडिया का सही या गलत होना इस बात पर निर्भर करेगा कि सीढ़ी-दर-सीढ़ी न्याय-व्यवस्था में किसको कितनी सीढ़ियाँ चढ़ने की कूवत है. ऐसे में मीडिया ट्रायल क्या गलत माना जाएगा? उसको तो पहले से हीं भारत के अवमानना कानून (जो केवल भारत में हीं आपराधिक और सिविल दोनों किस्म के आज भी हैं) की दहशत रहती है.
एक अन्य ताज़ा स्थिति पर गौर करें, मीडिया की आलोचना करने के पहले. सत्ताधारी बीजेपी के एक पूर्व केन्द्रीय मंत्री और तीन बार के सांसद पर उनके कॉलेज की एक छात्रा ने साल भर तक बलात्कार और ब्लैकमेल का आरोप लगाया. एसआईटी ने पूरी जांच के बाद इस गेरुआधारी सांसद को पिछले वर्ष गिरफ्तार किया. इस स्वामी नेता पर सन 2011 में भी आश्रम की एक साध्वी ने ऐसा हीं आरोप लगाया था लेकिन सात साल बाद राज्य की भाजपा सरकार ने यह केस अदालत से वापस ले लिया. क्या दूसरे मामले में भी मीडिया इसलिए चुप हो जाये कि पहला केस अदालत के जेरे बहस है?
आप को याद होगा कि यह सांसद लगातार मीडिया को बुरा भला कहता रहा और अपने को निर्दोष बताता रहा जबकि मीडिया ने वे सभी गंदे विडिओ और सन्देश भी दिखाए जो सांसद और इस छात्रा के बीच रहे. इस छात्रा ने विस्तार से मीडिया को इंटरव्यू में बताया था कहाँ, कैसे और कब इस महंत सांसद ने इसका शारीरिक शोषण किया. लेकिन इससे भी बड़ा झटका पूरे सिस्टम, न्यायपालिका, पुलिस और मीडिया को तब लगा जब दो दिन पहले इस छात्रा ने कोर्ट में बयान दिया कि उसके द्वारा लगाये सभी आरोप गलत हैं और विपक्ष के लोगों ने उसे डरा कर ये आरोप लगवाए थे. जाहिर है पूरा समाज अब मीडिया को सूली पर टांगने को आमादा होगा क्योंकि लडकी के नए और विपरीत बयान ने स्वामी के लिए “दूध का दूध और पानी का पानी” कर दिया. बहरहाल पुलिस (अभियोजन) ने कहा है कि वह इस छात्रा के खिलाफ “परजुरी” (अदालत में झूठा बयान) देने का मुकदमा दायर करेगी. लिहाज़ा पूरा मामला तकनीकी तौर पर “सब-जुडिस” (अदालती प्रक्रिया) माना जाएगा और बकौल अटॉर्नी जनरल और स्थापित नियम मीडिया को इसे रिपोर्ट नहीं करना चाहिए.
लेकिन मान लीजिये कल मीडिया को ऐसे विडिओ मिलते हैं जिसमें स्वामी दबाव या लालच देकर इस लडकी से बयान बदलवा रहा है, तो क्या मीडिया इस आधार पर साक्ष्य समाज में न लाये कि इससे न्यायपालिका की (अटॉर्नी जेनरल मुताबिक) गरिमा गिरती है?
अगर सिस्टम में सब कुछ सही था तो हाथरस काण्ड के दस दिन में बलात्कार की जांच क्यों नहीं हुई, जबकि पहले दिन ही मजिस्ट्रेट के सामने पीड़िता ने कहा था “संदीप ने मेरे साथ जबरदस्ती की, फिर मारा”. और क्यों 10 दिन बाद की निजी अंग के स्वाब जांच के बाद प्रदेश का अतिरिक्त महानिदेशक (कानून-व्यवस्था) ऐलान करता है कि बलात्कार नहीं हुआ. हाई कोर्ट की भी नाराजगी तो यही थी न कि जो अधिकारी जांच का हिस्सा नहीं, वह ऐसा दावा मीडिया से कैसे कर सकता है. क्या मीडिया जांच में अनावश्यक अवरोध पैदा कर रही थी जब उसे पीडिता के गाँव जाने से रोका गया? क्या जब कलेक्टर पीडिता को “समझा” रहा था कि मीडिया तो चली जायेगी लेकिन हम तो यहीं रहेंगें या यह कह रहा था कि “मान लो लडकी को कोरोना हो जाता तो क्या सरकार ये लाखों रुपये देती “ तो मीडिया को इस बात का इन्तजार करना चाहिए था कि “साहेब बहादुर” धमकाने के बाद कब मीडिया तो “सत्य” की जानकारी देंगें? यह मीडिया का शिद्दत से लगना हीं तो था कि हाई कोर्ट पूरे मामले का स्वतः-संज्ञान लेता है. वरना सरकार तो पूरी केस को इश्क का चक्कर और “हॉनर किलिंग” बता कर कब का पल्ला झाड लेती.
अटॉर्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट में कहा “मीडिया ट्रायल की वजह से कोर्ट भी प्रभावित होता है”. शायद वह भूल गए कि जजों को “ट्रेंड जुडिशल माइंडस” कहा जाता है. अगर मीडिया रिपोर्ट से किसी जज का फैसला बदल जाये तो वह जज बनने के योग्य नहीं है.
दरअसल सरकारें या उनके अभिकरण ईमानदार और संवेदनशील हो कानून के अनुरूप काम करें, तो मीडिया को न तो चीखने की जरूरत होती, न हीं इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म की भूमिका होती, लेकिन जब वर्दी पहना अफसर या कानून के अनुपालन लेने वाला कलेक्टर “मुख्यमंत्री” को खुश करने के लिए “पॉलिटिकली करेक्ट” स्थिति बनाने के लिए आपराधिक रूप से स्याह को सफ़ेद करने लगता है तो आवाज बुलंद करना हर व्यक्ति और लोक कल्याण की संस्था का दायित्व होता है. इसका उदाहरण आसाराम जेल में बापू और बाबा राम रहीम हैं. अगर मीडिया न होती तो न जाने कितनी लड़कियां इनके गुनाह का शिकार होती.
(लेखक: एन के सिंह, पूर्व महा-सचिव, ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन)