भारत भ्रष्टाचार की नयी ऊंचाइयाँ छूने लगा है. एक मुख्यमंत्री अपने खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में सुनवाई करने वाले सुप्रीम कोर्ट के जज पर ही भ्रष्टाचार का आरोप लगता है और हिमाकत यह कि अपने 8 पेज के आरोप पत्र को सीजेआई को भेजने के साथ हीं मीडिया को भी दे देता है. स्वतंत्र भारत में देश की सबसे बड़ी अदालत की गरिमा पर यह दूसरी बार आंच आयी है। पहली बार जनवरी, 2018 को तब जब सुप्रीम कोर्ट के सबसे वरिष्ठ 4 जजों ने प्रेस कांफ्रेंस करके अपने मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महत्वपूर्ण मामलों को खास जजों की एक बेंच को सौंपने का आरोप लगाया था.

देश की न्यायपालिका में वह घटना एक भूकंप की मानिंद थी. लेकिन सुधार तो दूर, आरोप का सिलसिला बढ़ता ही गया, और उसके बरअक्स तत्कालीन चीफ जस्टिस रिटायर होने के साथ ही सरकार की मेहरबानी से राज्यसभा सदस्य बन गए. आज एक मुख्यमंत्री जिस पर भ्रष्टाचार के मामले में अभियोग कोर्ट में है, जज पर आरोप लगा कर सीधे सबसे बड़े कोर्ट को चुनौती दे रहा है. शायद आरोप जब हद से ज्यादा लगते हैं तो आरोपित संस्थाएं और उनमें बैठे लोग चमड़ी मोटी कर लेते हैं.

उधर मुख्यमंत्री की मुलाकात हाल हीं में केंद्र के दो बड़े नेताओं से भी हुई थी.

लिहाज़ा देश की सबसे बड़ी और सबसे मकबूल संस्थाएं भी उसकी जद में आने लगीं हैं या आरोप की दलदल में फिलवक्त अपनी गरिमा खो रही हैं. समाजशास्त्रियों की धारणा सही साबित होने लगी है कि जिन समाजों में पे-ऑफ सिस्टम का भ्रष्टाचार घर कर जाता है वहां से इसे निकलना आमतौर पर नामुमकिन होता है.

समाजशास्त्रियों का मानना है कि सामजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े देशों में शुरूआती दौर में शेकडाउन सिस्टम का भ्रष्टाचार प्रबल रहता. सन 1970 से भारत में जब बड़ा धन सरकार के विकास-कार्यक्रमों के लिए आने लगा तो अफसरों ने सोचा कि शेकडाउन सिस्टम में ख़तरा ज्यादा है और माल कम लिहाज़ा अफसर-नेता-व्यापारी का एक नया नेक्सस बना. शेकडाउन सिस्टम को ख़त्म किया जा सकता है अगर शीर्ष पर बैठा अफसर या मुख्यमंत्री शिद्दत से चाह ले. लेकिन जिन समाजों में पे-ऑफ सिस्टम का भ्रष्टाचार जड़ें जमा चुका है वहां से इसका हटना लगभग नामुमकिन होता है. इसका कारण यह है कि पुल 10-20 साल बाद गिरता है और तब तक ठेकेदार पैसे के दम पर सांसद बन चुका होता है और इंजिनियर इंजिनियर-इन-चीफ और विधायक मंत्री. तीनों के पास सिस्टम याने कोर्ट तक को प्रभावित करने की ताकत आ चुकी होती है. शेकडाउन का शिकार व्यक्ति अपने घर परिवार में आ कर आपबीती बताता है लिहाज़ा भ्रष्ट अफसर के खिलाफ नाराजगी बढ़ती है. इसके ठीक उलट पे-ऑफ सिस्टम में समाज शिकार होता है और वह भी लम्बे समय बाद लिहाज़ा सामूहिक गुस्सा पनप नहीं पाता और पनपा भी तो पुल के मलबे की जांच तो किसी संस्था से हीं होगी और वहाँ भी कोई आदमी हीं होगा. उसे सहज हीं पैसे से खरीदा जा सकता है.

दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने अपनी चौथी रिपोर्ट में इसका संज्ञा लिया और इसे “कोएर्सिव और कोल्युसिव” (भयादोहन और सहमति- आधारित) बताया. कमीशन की संस्तुति थी कि इसे ख़त्म करने के लिए बर्डन ऑफ़ प्रूफ (दोष-मुक्ति की जिम्मेदारी) आरोपी पर डाला जाये और इसके खिलाफ कानून और संस्थाएं बेहद सख्त हों. उसने सिंगापुर का उदाहरण देते हुए कहा कि संस्थाएं और ज़ज्बा सही हों तो इस पर काबू पाया जा सकता है.

अदालत साक्ष्य और गवाह पर चलता है. पे-ऑफ सिस्टम के भ्रष्टाचार में चूंकि संलिप्त लोगों की मिलीभगत होती है और घटिया बिल्डिंग, खराब सड़क या पुल गिराने का शिकार एक व्यक्ति नहीं पूरा समाज होता है (जो अमूर्त है) लिहाज़ा कोर्ट में 2-G स्पेक्ट्रम सरीखा केस भी छूट जाता है.

मुख्य न्यायाधीश के ठीक बाद की वरीयता वाले न्यायाधीश, जो कि सीजेआइ बनने के क्रम में सबसे आगे हैं, के खिलाफ आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ने लिखित आरोप लगाया है कि वह अपने प्रभाव से प्रदेश के हाई कोर्ट में भ्रष्टाचार के मामलों में बेंच बदलवा रहे हैं, फैसले मनमर्जी से करवा रहे हैं और उनकी दो बेटियों ने अमरावती में राज्य की राजधानी बनने की घोषणा के पूर्व हीं बड़े पैमाने पर दलितों की जमीन गैर-कानूनी ढंग से खरीदा. उधर कर्नाटक के भाजपा मुख्यमंत्री के बेटी के बेटे (नाती) पर आरोप है कि नाना के सीएम बनने के मात्र 15 दिनों में वह पांच साल से लगभग बंद कंपनी के डायरेक्टर बन गए और उनकी कंपनी को अचानक करोड़ों की रकम कुछ ऐसी फर्जी कंपनियों द्वारा दी गयी जिनका सम्बन्ध उस कम्पनी से है जो राज्य में 600 करोड़ रुपये की लागत से सरकारी आवास बना रही है.

'पे-ऑफ' सिस्टम विकासशील देशों का कोढ़

अगर सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई के बाद सबसे वरिष्ठ जज पर एक मुख्यमंत्री ऐसे भ्रष्टाचार के आरोप लगाये तो लगता है कि शायद सिस्टम हाथ से निकल चुका है. जब चार जजों से प्रेस कांफ्रेंस कर तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पर आरोप लगाया कि महत्वपूर्ण केसों को एक खास जज की बेंच को सौंपा जा रहा है तो वह “क्रूड” (भौंडा और मन को झकझोरने वाला) नहीं था लेकिन सीएम का आठ पेज का शिकायत-पत्र, जो मीडिया को दिया गया, पे-ऑफ सिस्टम के भ्रष्टाचार के आरोप का “चीखता दस्तावेज” है. समाजशास्त्रियों के अनुसार दुनिया में भ्रष्टाचार दो तरह के होते हैं--शेकडाउन सिस्टम और पे-ऑफ सिस्टम. पहले में सत्ता/कानून का भय दिखा कर अधिकारी भयादोहन करता है जैसे दरोगा का किसी को अपराध में फंसा कर पैसे लेना, जबकि दूसरे में इंजिनियर-ठेकेदार एक सहमति बना कर जनता के पैसे से होने वाले विकास कार्यों में लूट करते हैं जैसे पुल में कम सीमेंट लगाना. पहले किस्म में व्यक्ति सीधा और तत्काल शिकार होता है जबकि दूसरे में समाज का बड़ा भाग और वह भी कुछ वर्षों बाद जब पुल गिरता है.

दोनों केस 'पे-ऑफ' के बेहतरीन उदाहरण

वैसे तो स्वयं मुख्यमंत्री पर भी लैंड-घोटाले के आरोप तब से हैं जब से इनके पिता मुख्यमंत्री होते थे. कोई एक दशक पहले एक मीडिया हाउस ने उन भ्रष्टाचारों को प्रमाण देते हुए एक पुस्तक छापी थी. लेकिन जनता शायद भ्रष्टाचार को इतना बड़ा मुद्दा नहीं मानती लिहाज़ा जानते हुए भी ऐसे व्यक्ति या उसकी पार्टी को जाति या अन्य कारणों से वोट दे कर सत्ता पर बैठा देती है. बहरहाल चूंकि क्रिमिनल न्यायशास्त्र में “प्रश्न का जवाब प्रश्न नहीं होता“ लिहाज़ा सीएम का भ्रष्टाचार फिलहाल मुद्दा नहीं है लेकिन उनका आरोप काबिले तवज्जो है. उनके अनुसार पूर्व सरकार के फैसलों को लेकर जितने भी मुकदमें उनकी सरकार में हुए उनमें से अधिकांश में हाई कोर्ट की एक खास बेंच जांच पर रोक लगा देती है. आरोप के अनुसार इन सब के पीछे सुप्रीम कोर्ट के अमुक जज हैं. वैसे तो यह आरोप मीडिया को देना हीं आम तौर पर सबसे बड़ी अदालत की अवमानना बन सकता है लेकिन आज शीर्ष कोर्ट के उस न्यायाधीश के लिए अपनी इमेज बचाना ज्यादा जरूरी है क्योंकि उन्हें भविष्य में मुख्य-न्यायधीश की शपथ लेनी है.

दूसरे मामले में कर्नाटक के मुख्यमंत्री पर पहले से हीं पद छोड़ने का दबाव उनकी अपनी पार्टी- भारतीय जनता पार्टी- बना रही है लेकिन पे-ऑफ सिस्टम का बेहतरीन नमूना पेश करते हुए उनके नाती ने अपनी सफाई में कहा “मैं व्यक्तिगत रूप से किससे लोन लेता हूँ इसका हमारे नाना की राजनीति से कोई लेने देना नहीं”. दरअसल यही जवाब इस किस्म के भ्रष्टाचार में हाल के दस साल में उजागर हुए सभी मामलों में दिए गए. तार्किक रूप से कितना सहज लगता है यह जवाब. सीएम भी आदमी है उसका भी परिवार होता है और भारत के संविधान के तहत उसका नाती या बेटा-बेटी भी एक नागरिक है, बिज़नेस कर सकता है और किसी पांच साल से बंद पडी कंपनी में नाना के मुख्यमंत्री बनने के 15 दिन बाद डायरेक्टर हो सकता है. कौन सा कानून तोडा गया?

फिर कौन गवाह, कौन अभियोजन यह सिद्ध कर सकेगा कि कांग्रेस के ज़माने में पास हुआ टेंडर नयी सरकार में तब तक फंसा रहेगा जबतक वर्क आर्डर नहीं जारी होता. लिहाज़ा बड़ी कंपनियां किसी दूरस्थ बड़े शहर में कई फर्जी कम्पनियां खोल देती हैं जो “सीएम के नाती की बंद कंपनी में भी भविष्य की संभावनाएं देख कर पैसे लगा सकती हैं. सुप्रीम कोर्ट के दूसरे सबसे वरिष्ठ जज पर आरोप लगाने वाले सीएम पर भी सन 2009 के पूर्व इसी तरह के आरोप थे कि पिता के मुख्यमंत्रित्व काल में उनकी कंपनी का शेयर रातो-रात 100 गुने भाव पर एक ऐसे कंपनी ने खरीदा जो राज्य में एक बड़ा ठेका सरकार से ले चुकी थी. गौर कीजिये, सीएम बनते हीं बिज़नेस का कीड़ा कई मुख्यमंत्रियों के बेटों के भीतर कुलबुलाने लगता है भले हीं बेटा (या बेटी) लालू के हों, या येद्दियुरप्पा के या फिर चिदंबरम के या रमण सिंह या करूणानिधि के. अब यह स्किल कई जजों के परिवार में भी दीखने लगा है.

पे-ऑफ सिस्टम के भ्रष्टाचार का स्वरुप एक हीं होता है सिर्फ किरदार बदल जाते हैं. सही और तार्किक जनचेतना के अभाव में जनता किसी को मुख्यमंत्री बना देती है तो कोई मुख्य न्यायाधीश बन जाता है. खरबूजा छुरी पर चले या छुरी खरबूजे पर, कटना खरबूजे को हीं होता है.