नई दिल्ली। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अल्पसंख्यक संस्थान है या नहीं, इसका फैसला तीन जजों की संविधान पीठ करेगी। शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे से जुड़े मामले को नई पीठ के पास भेज दिया। शीर्ष अदालत ने 1967 के उस फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसे केंद्रीय कानून के तहत बनाया गया था।

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को माइनॉरिटी स्टेटस देने के मामले में 7 जजों की बेंच का फैसला शुक्रवार को आया. हालांकि यह फैसला सर्वसम्मति से नहीं बल्कि 4:3 के अनुपात में आया है. फैसले के पक्ष में सीजेआई, जस्टिस खन्ना, जस्टिस पारदीवाला जस्टिस मनोज मिश्रा एकमत रहे. वहीं जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस एससी शर्मा का फैसला अलग रहा। सुप्रीम कोर्ट ने 4:3 के बहुमत से कहा कि मामले के न्यायिक रिकॉर्ड को सीजेआई के समक्ष रखा जाना चाहिए ताकि 2006 के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले की वैधता तय करने के लिए नई पीठ गठित की जा सके।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान का हकदार है। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि कोई भी धार्मिक समुदाय संस्थान की स्थापना कर सकता है। मगर धार्मिक समुदाय संस्था का प्रशासन नहीं देख सकता है। संस्थान की स्थापना सरकारी नियमों के मुताबिक की जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक दर्जे का हकदार है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर तीन जजों की नई बेंच बनेगी। यह नई बेंच ही तय करेगी एएमयू का दर्जा क्या होगा। बता दें कि संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनके प्रशासन का अधिकार है। सात न्यायधीशों वाली संविधान पीठ में जस्टिस संजीव खन्ना, सूर्यकांत, जेबी पारदीवाला, दीपांकर दत्ता, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र शर्मा शामिल हैं।