सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड उच्च न्यायालय के उस फैसले पर आश्चर्य व्यक्त किया, जिसके तहत पत्नी के लिए भरण-पोषण की ट्रायल कोर्ट द्वारा दिए गए 5,000 रुपये की राशि को घटाकर रु. 1,000, प्रति माह कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट को गुज़ारा भत्ता राशि को इतनी कम सीमा तक कम करने का कोई औचित्य नहीं दिखता।

सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस विक्रम नाथ और अहसानुद्दीन अमानुल्लाह ने कहा, “यह चौंकाने वाला है कि भरण-पोषण की राशि को इतनी भारी मात्रा में घटाकर मात्र महिला को अपना गुजारा करने के लिए 1,000 प्रति माह कर दिया गया।”

सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस विवादित आदेश रद्द करते हुए ट्रायल कोर्ट के दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के तहत भरण पोषण के रूप में 5,000/ रुपये प्रति माह के अवार्ड आदेश को बहाल कर दिया।

हाईकोर्ट के समक्ष वादी महिला के पति ने निचली अदालत में फैमिली कोर्ट, गिरिडीह द्वारा पारित आदेश के खिलाफ आपराधिक पुनर्विचार दायर किया, जिसमें पत्नी को प्रति माह 5000 रुपये का एकतरफा भरण-पोषण दिया गया था।

उसमें प्रतिवादी ने तर्क दिया कि आदेश बिना नोटिस की तामील किए और उसे सुने बिना पारित किया गया था। उन्होंने आगे कहा कि वह गांव के एक मंदिर में एक गरीब पुजारी हैं और अंशकालिक ट्यूशन से अपनी आजीविका कमाते हैं। इसलिए वह प्रति माह 5000/- रुपये का भुगतान करने की स्थिति में नहीं है। दूसरी ओर, याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि यह सच नहीं है कि आदेश प्रतिवादी की अज्ञानता में पारित किया गया। दरअसल, दोनों पक्षकार मध्यस्थता केंद्र के समक्ष पेश हुए। इसके बाद उसके साथ क्रूरता की गई और उसे अपना वैवाहिक घर छोड़ना पड़ा।

दलीलें सुनने के बाद हाईकोर्ट ने आदेश दिया: “आक्षेपित आदेश के कारण से ऐसा प्रतीत होता है कि निचली अदालत ने याचिकाकर्ता की पुरोहिती और ट्यूशन के पेशे से प्रति माह 25,000 रुपये की आय का आकलन करके भरण-पोषण का आदेश दिया है। कृषि से 5 लाख प्रति वर्ष की आय भी बिना किसी दस्तावेजी साक्ष्य के बताई गई है, जिससे यह पता चले कि याचिकाकर्ता के नाम पर कृषि भूमि थी। जिस अर्ध शहरी क्षेत्र में याचिकाकर्ता रह रहा था, उसे देखते हुए ट्यूशन से 25,000 रुपये प्रति माह की आय का आकलन अत्यधिक अवास्तविक प्रतीत होता है। आय का उचित अनुमान रु. 5000/- से रु. 7000/- प्रति माह से अधिक नहीं हो सकता है।”